सूरतुल बक़रह Surah Al- Baqaraah
सूरए बक़रह - तीसवाँ रूकू (तर्जुमा तफ़्सीर के साथ )
【ﺑِﺴْــــــــــــــﻢ ِﷲ ِﺍﻟـــﺮَّﺣْﻤَﻦِﺍلْـــرَّﺣـــــــــــِﻴﻢ】
وَإِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاءَ فَبَلَغْنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا تَعْضُلُوهُنَّ أَن يَنكِحْنَ أَزْوَاجَهُنَّ إِذَا تَرَاضَوْا بَيْنَهُم بِالْمَعْرُوفِ ۗ ذَٰلِكَ يُوعَظُ بِهِ مَن كَانَ مِنكُمْ يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ ۗ ذَٰلِكُمْ أَزْكَىٰ لَكُمْ وَأَطْهَرُ ۗ وَاللَّهُ يَعْلَمُ وَأَنتُمْ لَا تَعْلَمُونَ (232) وَالْوَالِدَاتُ يُرْضِعْنَ أَوْلَادَهُنَّ حَوْلَيْنِ كَامِلَيْنِ ۖ لِمَنْ أَرَادَ أَن يُتِمَّ الرَّضَاعَةَ ۚ وَعَلَى الْمَوْلُودِ لَهُ رِزْقُهُنَّ وَكِسْوَتُهُنَّ بِالْمَعْرُوفِ ۚ لَا تُكَلَّفُ نَفْسٌ إِلَّا وُسْعَهَا ۚ لَا تُضَارَّ وَالِدَةٌ بِوَلَدِهَا وَلَا مَوْلُودٌ لَّهُ بِوَلَدِهِ ۚ وَعَلَى الْوَارِثِ مِثْلُ ذَٰلِكَ ۗ فَإِنْ أَرَادَا فِصَالًا عَن تَرَاضٍ مِّنْهُمَا وَتَشَاوُرٍ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا ۗ وَإِنْ أَرَدتُّمْ أَن تَسْتَرْضِعُوا أَوْلَادَكُمْ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ إِذَا سَلَّمْتُم مَّا آتَيْتُم بِالْمَعْرُوفِ ۗ وَاتَّقُوا اللَّهَ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ (233) وَالَّذِينَ يُتَوَفَّوْنَ مِنكُمْ وَيَذَرُونَ أَزْوَاجًا يَتَرَبَّصْنَ بِأَنفُسِهِنَّ أَرْبَعَةَ أَشْهُرٍ وَعَشْرًا ۖ فَإِذَا بَلَغْنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيمَا فَعَلْنَ فِي أَنفُسِهِنَّ بِالْمَعْرُوفِ ۗ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ (234) وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيمَا عَرَّضْتُم بِهِ مِنْ خِطْبَةِ النِّسَاءِ أَوْ أَكْنَنتُمْ فِي أَنفُسِكُمْ ۚ عَلِمَ اللَّهُ أَنَّكُمْ سَتَذْكُرُونَهُنَّ وَلَٰكِن لَّا تُوَاعِدُوهُنَّ سِرًّا إِلَّا أَن تَقُولُوا قَوْلًا مَّعْرُوفًا ۚ وَلَا تَعْزِمُوا عُقْدَةَ النِّكَاحِ حَتَّىٰ يَبْلُغَ الْكِتَابُ أَجَلَهُ ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ مَا فِي أَنفُسِكُمْ فَاحْذَرُوهُ ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ غَفُورٌ حَلِيمٌ (235)
तर्जुमा
और जब तुम औरतों को तलाक़ दो और उनकी मीआद पूरी हो जाए (463)
तो ऐ औरतों के वालियों (स्वामियों), उन्हें न रोको इससे कि अपने शौहरों से निकाह कर लें (464)
जब कि आपस में शरीअत के अनुसार रज़ामंद हो जाएं (465)
यह नसीहत उसे दी जाती है जो तुम में से अल्लाह और क़यामत पर ईमान रखता हो यह तुम्हारे लिये ज़्यादा सुथरा और पाकीज़ा है और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते (232)
और माएं दूध पिलाएं अपने बच्चों को (466)
पूरे दो बरस उसके लिये जो दूध की मुद्दत पूरी करनी चाहे (467)
और जिसका बच्चा है (468)
उसपर औरतों का खाना और पहनना है दस्तूर के अनुसार (469)
किसी जान पर बोझ न रखा जाए उसके बच्चे से (470)
और न औलाद वाले को उसकी औलाद से (471)
या माँ बाप ज़रर न दे अपने बच्चे को और न औलाद वाला अपनी औलाद को (472)
और जो बाप की जगह है उसपर भी ऐसा ही वाजिब है फिर अगर माँ बाप दानों आपस की रज़ा और सलाह से दूध छुड़ाना चाहें तो उनपर गुनाह नहीं. और अगर तुम चाहो कि दाइयों से अपने बच्चों को दूध पिलाओ तो भी तुमपर हरज नहीं कि जब जो देना ठहरा था भलाई के साथ उन्हें अदा करदो और अल्लाह से डरते रहो और जान रखो कि अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है (233)
और तुम में जो मरें और बीबियां छोड़े वो चार महीने दस दिन अपने आप को रोके रहें (473)
तो जब उनकी मुद्दत (अवधि) पूरी हो जाए तो ऐ वालियों (स्वामियों) तुम पर मुआख़ज़ा(पकड़) नहीं उस काम में जो औरत अपने मामले में शरीअत के अनुसार करें और अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है (234)
और तुम पर गुनाह नहीं इस बात में जो पर्दा रखकर तुम औरतों के निकाह का पयाम दो या अपने दिल में छुपा रखो. (474)
अल्लाह जानता है कि अब तुम उनकी याद करोगे (475)
हाँ उनसे छुपवां वादा न कर रखो मगर यह कि उतनी बात कहो जो शरीअत में चलती है और निकाह की गांठ पक्की न करो जब तक लिखा हुक्म अपने समय को न पहुंच ले (476)
और जान लो कि अल्लाह तुम्हारे दिल की जानता है तो उससे डरो और जान लो कि अल्लाह बख़्शने वाला, इल्म (सहिष्णुता) वाला है (235)
तफ़सीर
(463) यानी उनकी इद्दत गुज़र चुके.
(464) जिनको उन्होंने अपने निकाह के लिये चुना हो, चाहे वो नए हों या यही तलाक़ देने वाले या उनसे पहले जो तलाक़ दे चुके थे.
(465) अपने क़ुफ़्व यानी बराबर वाले में मेहरे मिस्ल पर, क्योंकि इसके ख़िलाफ़ की सूरत में सरपरस्त हस्तक्षेप और एतिराज़ का हक़ रखते हैं. मअक़ल बिन यसार मुज़नी की बहन का निकाह आसिम बिन अदी के साथ हुआ था. उन्होंने तलाक़ दी और इद्दत गुज़रने के बाद फिर आसिम ने दरख़ास्त की तो मअक़ल बिन यसार आड़े आए. उनके बारे में यह आयत उतरी. (बुख़ारी शरीफ़)
(466) तलाक़ के बयान के बाद यह सवाल अपने आप सामने आता है कि अगर तलाक़ वाली औरत की गोद में दूध पीता बच्चा हो तो उसके अलग होने के बाद बच्चे की परवरिश का क्या तरीक़ा होगा इसलिये यह ज़रूरी है कि बच्चे के पालन पोषण के बारे में माँ बाप पर जो अहकाम हैं वो इस मौक़े पर बयान फ़रमा दिये जाएं. लिहाज़ा यहाँ उन मसाइल का बयान हुआ. माँ चाहे तलाक़ शुदा हो या न हो, उस पर अपने बच्चे को दूध पिलाना वाजिब है, शर्त यह है कि बाप को उजरत या वेतन पर दूध पिलवाने की क्षमता और ताक़त न हो या कोई दूध पिलाने वाली उपलब्ध न हो. या बच्चा माँ के सिवा किसी का दूध क़ुबूल न करे. अगर ये बात न हो, यानी बच्चे की परवरिश ख़ास माँ के दूध पर निर्भर न हो तो माँ पर दूध पिलाना वाजिब नहीं, मुस्तहब है. (तफ़सीरे अहमदी व जुमल वग़ैरह)
(467) यानी इस मुद्दत का पूरा करना अनिवार्य नहीं. अगर बच्चे को ज़रूरत न रहे और दूध छुड़ाने में उसके लिये ख़तरा न हो तो इससे कम मुद्दत में भी छुड़ाना जायज़ है. (तफ़सीरे अहमदी, ख़ाज़िन वग़ैरह)
(468) यानी वालिद, इस अन्दाज़े
बयान से मालूम हुआ कि नसब बाप की तरफ़ पलटता है.
(469) बच्चे की परवरिश और उसको दूध पिलवाना बाप के ज़िम्मे वाजिब है. इसके लिये वह दूध पिलाने वाली मुक़र्रर करे. लेकिन अगर माँ अपनी रग़बत से बच्चे को दूध पिलाए तो बेहतर है. शौहर अपनी बीवी पर बच्चे को दूध पिलाने के लिये ज़बरदस्ती नहीं कर सकता, और न औरत शौहर से बच्चे के दूध पिलाने की उजरत या मज़दूरी तलब कर सकती है. जब तक कि उसके निकाह या इद्दत में रहे. अगर किसी शख़्त ने अपनी बीवी को तलाक़ दी और इद्दत गुज़र चुकी तो वह उस बच्चे के दूध पिलाने की उजरत ले सकती है. अगर आप ने किसी औरत को अपने बच्चे के दूध पिलाने पर रखा और उसकी माँ उसी वेतन पर या बिना पैसे दूध पिलाने पर राज़ी हुई तो माँ ही दूध पिलाने की ज़्यादा हक़दार है. और अगर माँ ने ज़्यादा वेतन तलब किया तो बाप को उससे दूध पिलवाने पर मजबूर नहीं किया जाएगा. (तफ़सीरे अहमदी व मदारिक). “अलमअरूफ़” (दस्तूर के अनुसार) से मुराद यह है कि हैसियत के मुताबिक़ हो, तंगी या फ़ुज़ूलख़र्ची के बग़ैर.
(470) यानी उसको उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ दूध पिलाने पर मजबूर न किया जाए.
(471) ज़्यादा वेतन तलब करके.
(472) माँ का बच्चे को कष्ट देना यह है कि उसको वक़्त पर दूध न दे और उसकी निगरानी न रखे या अपने साथ मानूस कर लेने के बाद छोड़ दे. और बाप का बच्चे को कष्ट देना यह है कि हिले हुए बच्चे को माँ से छीन ले या माँ के हक़ में कमी करे जिससे बच्चे को नुक़सान हो.
(473) गर्भवती की इद्दत तो गर्भ के अन्त तक यानी बच्चा पैदा हो जाने तक है, जैसा कि सूरए तलाक़ में ज़िक्र है. यहाँ बिना गर्भ वाली औरत का बयान है जिसका शौहर मर जाए, उसकी इद्दत चार माह दस रोज़ है. इस मुद्दत में न वह निकाह करे न अपना घर छोडे़, न बिना ज़रूरत तेल लगाए, न ख़ुश्बू लगाए, न मेहंदी लगाए, न सिंगार करे, न रंगीन और रेशमी कपड़े पहने, न नए निकाह की बात चीत खुलकर करे. और जो तलाक़े बयान की इद्दत में हो, उसका भी यही हुक्म है. अल्बत्ता जो औरत तलाक़े रजई की इद्दत में हो, उसको सजना सँवरना और सिंगार करना मुस्तहब है.
(474) यानी इद्दत में निकाह और निकाह का खुला हुआ प्रस्ताव तो मना है लेकिन पर्दे के साथ निकाह की इच्छा प्रकट करना गुनाह नहीं. जैसे यह कहे कि तुम बहुत नेक औरत हो या अपना इरादा दिल में ही रखे और ज़बान से किसी तरह न कहे.
(475) और तुम्हारे दिलों में इच्छा होगी इसी लिये तुम्हारे लिये तारीज़ जायज़ कर दी गई.
(476) यानी इद्दत गुज़र चुके.
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